हाल ही में मैंने एक कल्ट फिल्म देखी, ओम दर-ब-दर. कई जगह इस फिल्म की बहुत प्रशंसा पढ़ी थी और इसके बारे में अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली जैसे सिने दिग्गजों के विशेष साक्षात्कार भी देखे थे, जो बताते थे कि अगर यह फिल्म थिएटिरकल रिलीज को प्राप्त होती तो शोले और डीडीएलजे के सारे रिकॉर्ड तोड़ देती और ऑस्कर के लिए भेजी जाती तो बेनहूर या टाइटेनिक से ज्यादा पुरस्कार जीतकर लाती.

इतना सब जानने के बाद भी अगर किसी का मन न छटपटाए तो वह दर्शक ही क्या. अन्य सिनेप्रेमियों के ‘बहुत ढूँढा, लेकिन कहीं नहीं मिली’ जैसे अनुभव इस छटपटाहट को और भी बढ़ा देते. तो भैया, अपन भी इस खोज अभियान में शामिल हो गए और एक साल की मेहनत के बाद जब हाल ही में यूट्यूब पर इसे मौजूद पाया तो जितनी खुशी आर्किमिडीज को भी न हुई होगी, उससे ज्यादा हमें हुई. कल मौका मिलते ही इस सिनेमाई करिश्मे का साक्षात् किया. जब यह फिल्म खत्म हुई तो बचपन में पढ़ी नकटों का गाँव नाम की एक कहानी याद आ गई. जिसमें एक आदमी की नाक कट जाती है और वह सोचता है किे अब सब उसका मजाक उड़ाएंगे. इससे बचने के लिएक वह ईश्वर दर्शन के बहाने पूरे गाँव की नाक कटवा देता है
ओम दर ब दर ने मुझे ऐसा ही अनुभव दिया. पूरी फिल्म में मुझे यह समझ में नहीं आया कि एब्स्ट्रेक्ट मूवी, सरयिलिज्म मूवी, कल्ट मूवी जैसे भारी-भरकम विशेषणों को छोड़कर ऐसा क्या है, जिसकी वजह से इसे एक महान फिल्म करार दिया जाए. कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा शैली में बनी इस फिल्म को आईएमडीबी ने 7.1 स्टार देते हुए एक केअरफुली कन्स्ट्रक्टेड नॉनसेंस करार दिया है. मुझे इसमें तीसरा शब्द सबसे अधिक उपयुक्त जान पड़ता है.
ऐसी फिल्म, जिसकी सब तारीफ कर रहे हों, अगर आपको पसंद नहीं आती तो इस बात की पूरी आशंका है कि यह मान लिया जाए कि आपकी सिनेमा की समझ इतनी विकसित नहीं है कि आप सलमान खान या गोविंदा की फिल्मों से ऊपर उठ सकें. हालांकि जब मैंने इसके निर्देशक कमल स्वरूप के एक इंटरव्यू में उन्हें ‘फिल्म दर्शकों को समझ नहीं आई’ के सवाल पर ‘मेरी बला से’ स्टाइल वाला जवाब देते देखा तो मेरा अपराधबोध और हीनताबोध, दोनों ही काफी कम हो गए.
संक्षेप में इसके बारे में मेरी राय यही है कि इसे देखने का अफसोस, न देख पाने के अफसोस से बेहतर है. क्योंकि न देखने का अफसोस हमेशा बना रहता और देखने के बाद का अफसोस दो-चार दिन में खत्म हो ही जाएगा.
- संदीप अग्रवाल