उपाय भी ठीक से हो
एक सास ने बहू से कहा, बहूरानी! मैं अभी बाहर जा रही हूं। एक बात का ध्यान रहे, घर में अंधेरा न घुसने पाए। बहू बहुत भोली थी। सास चली गई, सांझ होने को आई। उसने सोचा कि अंधेरा कहीं घुस न जाए, सारे दरवाजे बंद कर दिए। सब खिड़कियां बंद कर दीं। दरवाजे के पास लाठी लेकर बैठ गई। सोचा- दरवाजा खुला नहीं है, कोई खिड़की खुली है, कहीं भी कोई छेद नहीं। आएगा तो दरवाजा खटखटाएगा, लाठी लिए बैठी हूं, देखती हूं कैसे अन्दर आएगा। पूरी व्यवस्था कर दी।
अंधेरा गहराने लगा। सोचा, कहां से आ गया! कहीं भी तो कोई रास्ता नहीं है। हो न हो दरवाजे से ही आ रहा है। अन्धकार को पीटना शुरू कर दिया। काफी पीटा कि निकल जाओ मेरे घर से! मेरी सास की मनाही है कि तुम्हें भीतर घुसना नहीं है! खूब लाठियां बजाई। लाठी टूटने लगी। हाथ छिल गए। लहूलुहान हो गए। अंधेरा तो नहीं गया। परेशान हो गई।
सास आई। दरवाजा खोला। कहा, यह क्या किया? मैंने कहा था कि अंधेरे को मत आने देना घर में। वह बोली, देखो, मेरे हाथ देख लो। लहूलुहान हो गए। लाठी टूट गई। मैंने बहुत समझाया, बहुत रोका, पर इतना जिद्दी है कि माना ही नहीं और यह तो घुस ही गया।
सास ने सिर पर हाथ रखा। कहा, बहूरानी! अंधेरे को ऍसे मिटाया जाता है? क्या अंधेरा ऍसे मिटता है? समझी नहीं तुम बात को। सास ने दीया जलाया, अंधेरा समाप्त हो गया। उपाय के बारे में हमारी जानकारी सही नहीं होती तो हम प्रयत्न तो करते हैं, परिश्रम करते हैं, पर अंधेरा मिटता नहीं।