दुराग्रहों से निपटने की चुनौती यानि दिल्ली डार्क
दुराग्रह हम भारतीयों के डीएनए में घुसे हुए हैं. धर्म को लेकर, जाति को लेकर, लैंगिक पहचान को लेकर, नस्ल को लेकर, वर्ण को लेकर. हम बचपन से ही अपने दुराग्रहों के आधार पर लोगों के सही गलत का फैसला करते हैं, अपने नैरेटिव्स में भी इसी को शामिल करते हैं और ये हमेशा से आदिकाल से होता आया है. वर्ण को ही लीजिए, हमारे सभी ग्रंथों को विज्युलाइजेशन करते समय हम सारे राक्षसों को काले रंग में दिखाते हैं और एक—दो को छोड़, बाक सारे देवताओं को उजले वर्ण के साथ. बहुत सारे लोग जीवन में प्रेम, नौकरी, दोस्ती, सफलता, विवाह आदि सिर्फ इसलिए हासिल नहीं कर पाते या बहुत संघर्ष के बाद हासिल कर पाते हैं, क्योंकि उनका रंग सांवला होता है. दिल्ली डार्क में भी रंग और नस्ल के आधार किए जाने वाले भेदभाव को बड़ी खूबसूरती के साथ दिखाया गया है.
दिल्ली डार्क की कहानी एक नाइजीरियाई युवक माइकल ओकेके पर केंद्रित है, जो राजधानी में एक मनुष्य के तौर पर पहचाने जाने के लिए संघर्ष कर रहा है. लेकिन, लोगों के लिए वह एमबीए डिग्री होल्डर माइकल नहीं, बल्कि एक काला अफ्रीकी है, एक नाईजीरियन है, जो दुनिया की नजरों में सिर्फ साइबर ठगी ही कर सकते हैं. फिल्म कोई उपदेश नहीं देती, बल्कि हमारी इन स्थापित मान्यताओं के चलते उत्पन्न होने वाले हालातों को बहुत हल्के—फुल्के, लेकिन बेहद असरदार अंदाज में पेश करती है. दिल्ली डार्क, दिल्ली है दिलवालों की जैसे प्रचलित आदर्श वाक्य को ध्वस्त कर इस शहर की संगदिली को हाइलाइट करती है. लेकिन, यह करते हुए फिल्म आगे के रास्ते बंद नहीं करती, बल्कि एक पॉजिटिव अप्रोच देती है कि अगर इंसान ठान ही ले तो रास्ते बना ही लेता है.
एक गंभीर विषय पर एक प्रभावशाली कॉमेडी बनाना आसान नहीं होता, लेकिन लेखक-निर्देशक दिवाकर दास रॉय ने इसे बहुत कुशलता के साथ अंजाम दिया है. एक इंडिपेंडेंट मूवी बनाना बहुत मेहनत, समय और पैसा खाने वाला काम होता है. रॉय को भी इस फिल्म बनाने में पॉंच—छह साल लगे. लेकिन, सब्र का फल मीठा होता है और दिल्ली डार्क इस इंतजार का फल है...मीठा भी और चटपटा भी.
खबर नेक्स्ट दिल्ली डार्क की सफलता के लिए दिली शुभकामनाएं देता है.
संदीप अग्रवाल